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विश्व की खगोलीय घटनाओं में ग्रहण एक अद्भुत घटना है। वैदिक काल से ग्रहण का सांकेतिक वर्णन तो मिलता है परंतु ज्योतिषीय काल गणना के साथ-साथ प्रकृति और मानव पर इसके अध्ययन का विस्तृत वर्णन मिलता है। ज्योतिष की काल गणना पर आधारित “सूर्य सिद्धांत” में ग्रहण के विभिन्न प्रकारों का वर्णन मिलता है । “वराहमिहिर” ने “बृहदसंहिता” में ग्रहण से होने वाले प्रभावों को बहुत व्यापकता से वर्णित किया है ।
पंचांग दिवाकर के अनुसार 5 जून 2020 को चंद्र ग्रहण है , परंतु यह ग्रहण वास्तव में उपछाया ग्रहण है । इसका अर्थ यह है कि चंद्र पात बिंदु से लगभग 14° 15° डिग्री दूरी पर है, अतः चंद्र पृथ्वी की छाया को स्पर्श करता हुआ निकल जाएगा । चंद्र का कोई भाग छाया से ढकेगा नहीं परंतु चंद्र प्रकाश थोड़ा धुंधला रहेगा । क्योंकि चंद्रग्रहण पूर्णिमा को होता है लेकिन सूर्य, चंद्र पातबिंदु पर समान अंश पर या 12° के समीप नहीं होंगे अतः इस ग्रहण का कोई महत्व नहीं है ।
ग्रहण क्या है ?
जब खगोलीय घटना में सूर्य, पृथ्वी, चंद्र एक सीध में होकर एक दूसरे पर पड़ने वाले प्रकाश को बाधित करते हैं तो यह ग्रहण होता है । पृथ्वी ,सूर्य व चंद्र के मध्य आकर जब चंद्र पर पड़ने वाले सूर्य के प्रकाश को बाधित करती है ,तो चंद्र का कुछ भाग या संपूर्ण भाग पृथ्वी की छाया से ढक जाता है , यही चंद्रग्रहण कहलाता है ।
यही घटना सूर्य व पृथ्वी के मध्य चंद्र के होने पर घटे तो सूर्य ग्रहण होता है, इसमें सूर्य को चंद्र अपने बिंब से ढक लेता है जिससे पृथ्वी पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें बाधित होती है और सूर्य ग्रहण होता है । दोनों घटनाओं की यह विशेषता है कि चंद्रग्रहण पूर्णिमा को घटता है यह वह समय होता है जब चंद्र सूर्य और पृथ्वी एक सीध में 180 डिग्री पर होते हैं अथवा सूर्य से चंद्र 6 राशि पार होता है।
सूर्य ग्रहण अमावस्या को होता है ,जब सूर्य और चंद्रमा एक ही भोगांश पर होते हैं । यद्यपि सूर्य आकार में बहुत बड़ा है और चंद्र छोटा परंतु क्योंकि चंद्र पृथ्वी से अधिक निकट होने पर चंद्र सूर्य को पूरी तरह से ढकता प्रतीत होता है । यही कारण है , सूर्य का कुछ भाग या संपूर्ण भाग चंद्र बिंब से ढक जाता है ।
ज्योतिष के अनुसार ग्रहण में राहु केतु की अवधारणा
भारतीय पुराणों में राहु केतु विषय पर कई कथाएं हैं जो हास्यप्रद व अंधविश्वास को बढ़ावा देती है । इन कथाओं में राहु को सिर और केतु को धड़ वाला राक्षस कहा गया है । कहीं कहीं राहु को सांप का मुख व केतु को पूंछ कहा गया है । अभी कुछ दशकों से तथाकथित ज्योतिषियों ने कालसर्प जैसे योग खोजे हैं जिनका कोई शास्त्रीय आधार नहीं मिलता जो केवल ज्योतिष के नाम पर भय की स्थिति उत्पन्न करता है । ज्योतिष एक पवित्र विषय है जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है । यह एक स्वतंत्र विषय है इसकी चर्चा हम आगे कभी करेंगे।
राहु केतु क्या है ?
चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है तथा पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है इसका एक भ्रमण पथ है । ज्योतिषीय भाषा अनुसार पृथ्वी के चारों ओर सूर्य का भ्रमण पथ है जिसे कांति वृत्त या रवि मार्ग कहते हैं (यद्यपि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है) । चंद्र मार्ग व रवि मार्ग जिस बिंदु पर एक दूसरे के मार्ग को काटते हैं, उसे पात कहते हैं । यह मार्ग उत्तर और दक्षिण की ओर 180 डिग्री के अंतर पर एक दूसरे को काटते हैं। अतः सूर्य और चंद्र के दो पात कहे जाते हैं इन्हें नार्थ नोड व साउथ नोड भी कहते हैं । यही पात ज्योतिष में राहु और केतु हैं । चंद्र और सूर्य मार्ग एक दूसरे से उत्तर दक्षिण की ओर 5 डिग्री तक उठे हुए हैं । जब चंद्र पात बिंदु से 90 डिग्री के अंतर पर होता है तो वह पात से सबसे परम दूरी पर होता है, जिसे चंद्रमा का परम विक्षेप कहते हैं । अतः राहु केतु को राक्षस या सांप आदि से आरोपित करने की अवधारणा अज्ञानता वश ही है।
राहु केतु और ग्रहण
राहु केतु ऐसे बिंदु हैं जहां रवि मार्ग व चंद्र मार्ग समान अंश या 180 डिग्री पर होते हैं । पात बिंदु से 12 डिग्री दूरी होने पर चंद्र व रवि मार्ग एक दूसरे से उत्तर या दक्षिण की ओर हट जाते हैं । यह वह स्थिति होती है जब कभी भी ग्रहण जैसी घटना संभव नहीं होती । पात या राहु केतु बिंदुओं की सरल रेखा पर जब सूर्य चंद्र व पृथ्वी होते हैं तो यह खगोलीय विलक्षण घटना होती है । जिसे सूर्य या चंद्र ग्रहण कहते हैं । इन घटनाओं के कारण यही पात बिंदु राहु केतु हैं । यही कारण है कि भारतीय ज्योतिष शास्त्र में राहु केतु को छाया ग्रह कहा जाता है यद्यपि राहु केतु का कोई भी तारा चिन्ह नहीं है।
प्रत्येक अमावस्या और पूर्णिमा को ग्रहण नहीं होता
प्रत्येक अमावस्या व पूर्णिमा को ग्रहण नहीं होता क्योंकि चंद्रमा, सूर्य, पात बिंदु से जितनी दूरी होंगे ग्रहण नहीं होगा । ग्रहण की यह स्थिति तभी सम्भव होगी जब सूर्य और चंद्र, पात बिंदु के लगभग 12 अंश से समीप होंगे । यह अंश जितना पात बिंदु के निकट होगा उतना ही पूर्ण ग्रहण होगा। 12 अंश से दूर हटते ही ग्रहण समाप्ति होगी । यह पात बिंदु चलाएंमान रहता है जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा व अपने अक्ष पर घूमती है । यह भी अपना स्थान बदलता है।
ग्रहण का प्रभाव
सूर्य सौरमंडल का मुख्य ग्रह है । संपूर्ण विश्व की प्राणशक्ति का आधार है । यह अग्नि तत्व से संबंधित है और सृजन में अग्नि का विशेष महत्व है । दूसरी ओर चंद्र पृथ्वी के सबसे समीप है और अपने गुरुत्वाकर्षण से समस्त पृथ्वी को प्रभावित करता है । इसका उदाहरण पृथ्वी पर समय समय पर आने वाले ज्वार भाटा हैं । जहां पर ये संपूर्ण प्रकृति को प्रभावित करते हैं वहीं मानव शरीर भी इनसे अछूता नहीं रहता है। देशकाल वातावरण पर ग्रहण के प्रभाव की चर्चा हम आगामी लेख में करेंगे—-
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