पृथ्वी पर जीवन का आधार सूर्य और चंद्रमा पर निर्भर है। भारतीय ज्योतिष में सूर्य को आत्मा व चंद्र को मन कहा गया है। वास्तव में सूर्य चंद्र की किरणें पृथ्वी के जड़-चेतन सभी को जीवनदान देती है। यदि सूर्य चंद्रमा की किरणें पृथ्वी पर नहीं पहुंचती है या कम पहुंचती है तो निश्चित रूप से पृथ्वी के समस्त देश,काल, वातावरण व सूक्ष्म रूप से प्रत्येक प्राणियों के जीवन को प्रभावित करेगा। यह खगोलीय घटना बहुत विलक्षण है जो चंद्रग्रहण व सूर्य ग्रहण के रूप में पूर्णिमा और अमावस्या को घटती है। इन घटनाओं का मुख्य कारण पात बिंदु है जिन्हें राहु केतु कहा जाता है, जिसका वर्णन हमने पिछले लेख में किया है।
चंद्र ग्रहण से सूर्य ग्रहण का प्रभाव अधिक
चंद्र ग्रहण से सूर्य ग्रहण का प्रभाव अधिक होता है। इसका कारण यह है कि सूर्य आकार में सबसे बड़ा है और अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण समस्त ब्रह्मांड को व्यवस्थित किए हुए हैं । चंद्र से पृथ्वी का आकार बड़ा होने के कारण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से चंद्रमा व्यवस्थित है। अतः यह पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, इसीलिए सूर्य समस्त ब्रह्मांड के साथ-साथ संपूर्ण प्राणियों को प्रभावित करता है। परिणामस्वरुप सूर्य ग्रहण का प्रभाव चंद्र से अधिक रहता है।सूर्य ग्रहण में सूर्य और चंद्र पात बिंदु पर एक ही अंश या 12 अंश के अधिक पास रहता है। ग्रहण की अवस्थाएं इन्हीं अंश पर निर्भर करती है। सूर्य चंद्र का भोगांश, बिंदुओं से जितनी अधिक निकट होगा सूर्य ग्रहण उतना प्रभावी होगा।
ग्रहण के समय सूर्य की गामा किरणों का प्रभाव
वैज्ञानिकों के अनुसार ग्रहण के समय सूर्य की गामा किरणों का प्रभाव अधिक रहता है। यही कारण है कि इस समय जनजीवन का मानसिक संतुलन व रक्तचाप बढ़ता है । वातावरण में जीवाणु का दुष्प्रभाव पड़ने पर महामारी आदि फैलने का भय बना रहता है। इसलिए नंगी आंखों से ग्रहण से ग्रस्त सूर्य को देखने से “रेटिना” जल सकता है और व्यक्ति अंधा हो सकता है। ग्रहण के समय हमारे वायुमंडल में जीवनदायिनी गैस की मात्रा कम हो जाती है जोकि सूर्य से आने वाली घातक किरणों को रोकती है।
सूर्य ग्रहण की तीन अवस्थाएं
ग्रहण का प्रभाव पृथ्वी पर एक जैसा नहीं होता । चंद्रमा आकार में सूर्य से बहुत छोटा है परंतु पृथ्वी से अधिक निकट होने के कारण सूर्य को ढक देता है। यदि चंद्रमा पृथ्वी से अधिक दूर हो तो वह सूर्य को पूर्ण रूप से नहीं रख पाता है। ग्रहण की अवस्थाएं इसी पर निर्भर करती है। सूर्य ग्रहण की तीन अवस्थाएं होती हैं।
आंशिक, मध्य और वलयाकार। आंशिक ग्रहण में चंद्र की छाया से सूर्य का कुछ भाग ढकता है , इसे खंडग्रास ग्रहण भी कहते हैं। मध्य में चंद्र सूर्य को पूर्ण रूप से ढक देता है जिसे खग्रास या परम ग्रास ग्रहण कहते हैं । वलयाकार ग्रहण में चंद्र पृथ्वी से बहुत दूर होता है। इसी कारण वह सूर्य को पूर्ण रूप से नहीं ढक पाता और एक कंगन का सा वलयाकार सूर्य के चारों ओर बनता है। यह ‘कंकण’ ग्रहण कहा जाता है।
वर्ष में चार ग्रहण
सूर्य पर चंद्र का छादन का क्षेत्र लगभग 250 किलोमीटर चौड़ा और 10000 किलोमीटर लंबा होता है, इसलिए सूर्यग्रहण कहीं दिखता है कहीं नहीं। सूर्य और चंद्रमा एक ही भोगांश पर तथा पात बिंदु पर वर्ष में केवल 4 बार आते हैं कभी-कभी पांच बार भी, परंतु यह दुर्लभ होता है। अतः वर्ष में चार ग्रहण (दो सूर्य ग्रहण दो चंद्रग्रहण) हो सकते हैं, इसमें चारों ग्रहण पृथ्वी भर में कभी कहीं देखे जाते हैं तो कभी कहीं।
ज्योतिष के आधार पर ग्रहण के प्रभाव
प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ग्रहण काल में स्नान शुद्धता संबंधी नियम बनाए थे जो विज्ञान सम्मत है। क्योंकि इस समय पृथ्वी का समस्त वायुमंडल दूषित होता है और जनमानस पर इसका कुप्रभाव पड़ता है।ज्योतिष के आधार पर ग्रहण के प्रभाव के विषय में भी ऋषि-मुनियों ने व्यापक विचार किया। क्योंकि सिद्धांत ज्योतिष का विषय ही ग्रह नक्षत्रों की खगोलीय गणना है इसलिए जन जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का विलक्षण चिंतन ज्योतिष शास्त्र में किया गया है।
ज्योतिष के आधार पर इन्हीं प्रभाव के फल की चर्चा हम वराहमिहिर के सिद्धांतों के अनुसार करेंगे।
सूर्य, चंद्र के ग्रहण के समय उदय अस्त का फल-
यदि सूर्य , चंद्र ग्रहण के समय उदय या अस्त हो तो ऐसी स्थिति में देश के राजा को कष्ट होता है तथा फसलों का नाश होता है। यदि पूर्ण ग्रहण के समय शनि, मंगल की दृष्टि भी हो तो अकाल व जन हानि होती है।
दिनमान या रात्रि मान के आधार पर ग्रहण का फल
यदि आकाश के दिनमान व रात्रि मान के आधार पर 7 बराबर भाग कर दिए जाएं तो प्रत्येक भाग के अनुसार भिन्न भिन्न फल प्राप्त होगा।जिस सप्तांश में ग्रहण का आरंभ होगा वह अशुभ होगा । जिस सप्तांश में ग्रहण का मोक्ष होगा अथवा ग्रहण की समाप्ति होगी उसमें लोगों का शुभ होगा।
प्रथम सप्तांश में सूर्य या चंद्र ग्रहण हो तो धार्मिक क्रियाओं में विघ्न होता है। वनवासी जातियों, आश्रमवासी, यज्ञ कर्ता, भोजनालय चलाने वाले, ब्राह्मणों व गुणीजनों आदि को विशेष पीड़ा होती है।
दूसरे भाग में ग्रहण हो तो व्यापारी वर्ग, हलवाई, किसान, पशुपालक, सेना अधिकारियों या स्थानीय नेताओं को कष्ट होता है।
तृतीय सप्तांश में ग्रहण होने पर शिल्पकार, हस्त कारीगर, दलित वर्ग व अत्यंत हीन कर्म करने वाले लोगों को कष्ट होता है।
चतुर्थ भाग में ग्रहण हो तो जिस भाग में ग्रहण दिखे उस देश अथवा देश के भाग में अनाज की कीमतें स्थिर रहती हैं।
पंचम भाग में ग्रहण हो तो घास खाने वाले पशुओं , रिश्वत लेने वाले मंत्रियों व राजा के परिवारजनों को पीड़ा होती है।
षष्ठ भाग में स्त्रियों व दलित वर्ग को पीड़ा होती है।
सप्तम भाग में ग्रहण होने पर चोर,चोरी-छिपे बुरे कर्म या आचरण करने वाले तस्करों आदि को हानि होती है।
अयन के अनुसार ग्रहण का फल
वर्ष में दो अयन माने जाते हैं। उत्तरायण व दक्षिणायन, यदि उत्तरायण में सूर्य या चंद्र ग्रहण होता है तो उच्च वर्ण के लोगों तथा राजनेताओं के लिए कष्ट कारक होता है। दक्षिणायन में ग्रहण होने पर छोटे-बड़े व्यापारी वर्ग के लिए पीड़ादायक होता है।
राशि के अनुसार ग्रहण का फल
मेष राशि
मेष राशि में ग्रहण होने पर सुनार, लोहार, सैनिक, पुलिस , तस्कर आदि शस्त्र से जीविका चलाने वालों को कष्ट होता है।
वृष राशि
इस राशि में सूर्य या चंद्र ग्रहण हो तो किसान, दूध व पशुओं का व्यापार करने वाले तथा महत्वपूर्ण लोगों को पीड़ा होती है।
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