First Talk : Time Calculation:-
इस सृष्टि में दो प्रकार के जगत विद्यमान हैं एक सूक्ष्म, दूसरा स्थूल एक अंतर्जगत व दूसरा बाह्य जगत । प्राचीन काल से ही मनुष्य इन दोनों तलों पर समानांतर रेखाओं की तरह समान उन्नति करता आया है । आंतरिक जगत जितना सूक्ष्म है उतना ही अधिक शक्तिशाली भी है । यह जगत एक बिंदु में केंद्रित होकर अपने चारों ओर पंच भूतों का एक पिंड बना लेता है जो बाह्य जगत या स्थूल जगत को अभिव्यक्त करता है अतः कहना होगा कि सूक्ष्म जगत ही स्थूल जगत का निर्माण करता है ,यही शक्ति प्राण रूप में बाह्य जगत को संयत करती हैं ।
इस सृष्टि में हमें जितनी बाह्य गतियां दृष्ट होती हैं,उतनी ही गतियां भीतर भी होती हैं जो इतनी सूक्ष्म हैं कि उन्हें पकड़ना सरल नहीं है। संपूर्ण ब्रह्मांड का गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण या विकर्षण इस कारण जगत का ही उदबोधक है । इसी अव्यक्त तत्व से ब्रह्मांड व इसमें स्थित ग्रह उपग्रह तारे नक्षत्र आदि सभी निर्मित हैं । यह एक अनंत शक्ति है जिसे प्रकृति या परमात्मा कहा गया है अर्थात संपूर्ण अनंत ब्रह्मांड इसी शक्ति की विलक्षण संरचना है।
सृष्टि में जब मानव का अवतरण हुआ उसी समय से यह सृष्टि उसके लिए एक महान रहस्य बनी । जो धरातल उसके खड़े होने का आधार बना उसकी व्यापकता तथा जहां तक आकाश में उसकी दृष्टि जा सकती थी उसकी अनंतता यह दोनों ही उसके आश्चर्य का विषय थे । जहां एक और सृष्टि की वनस्पति जल थल दिन रात ऋतु आदि उसके चिंतन मनन का कारण बनी वहीं ब्रह्मांड में विचरने वाले सूर्य, चंद्रमा, ग्रह –उपग्रह, नक्षत्र आदि ने उसे आश्चर्यचकित कर दिया ।मनुष्य जीवन का यही प्रारंभ उसे ज्ञान के सूक्ष्म केंद्र की ओर ले गया जिससे वेदों की उत्पत्ति हुई । उसने भिन्न-भिन्न प्रकारों से उस अव्यक्त तत्व पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि ले जाने का प्रयास किया कारण स्वरूप वेदों के विभिन्न विषय मानव की अंतर्दृष्टि के द्योतक हैं ।
संपूर्ण दृश्यमय जगत, प्रकृति या परमात्मा की विलक्षण रचना है जिसकी अपनी एक व्यवस्था है तथा अपना एक संगीत गति वा लय है । मानवीय बुद्धि की व्यापकता के कारण मानव ने पृथ्वी पर अपने पांव रखते ही इस संगीत गति व लय से अपना संबंध बना लिया । उसकी बुद्धि का एक छोर स्थूल जगत की गति व लय को समझने का प्रयास करने लगा तो दूसरा छोर चेतन के सूक्ष्म संगीत को खोजने लगा ।
इस प्रकार मानवीय ज्ञान की सीमा ब्रह्मांड के इस जड़ चेतन की व्यवस्था पर आधारित रही चाहे वहां आकाश स्थित ग्रह तारे नक्षत्रों की गति से संबंधित हो या पृथ्वी पर होने वाले अनेक परिवर्तन अथवा मनुष्य के शरीर में धड़कने वाले हृदय की गति की व्यवस्था हो । प्रकृति की यही व्यवस्था काल के अधीन है। पृथ्वी के परिवर्तन व ग्रह तारों आदि की गति का चिंतन काल गणना की ओर प्रेरित हुआ। मनुष्य के प्रारंभिक जीवन में जितने भी यज्ञ आदि कर्म होते थे वह इस विशिष्ट व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले किसी विशेष कालखंड में होते थे ,यह कालखंड मुहूर्त कहलाता था । समस्त कालगणना का आधार पृथ्वी के चारों ओर एक विशेष पथ पर चलने वाले ग्रहों की गति किसी विशेष आकाशीय कोण पर आधारित रही है। आकाशीय पिंडों के विषय संबंधी चिंतन की पद्धति कालांतर में ज्योतिष के रूप में युगो युगो से वर्तमान तक अग्रसर रही इसी विषय पर हम आगामी लेखों में विस्तार से चर्चा करेंगे ।—
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